भारत में उच्च उत्पादन की किस्मों के प्रयोग का आरम्भ

कृषि के क्षेत्र में विकसित देशों के मुकाबले, हमारी औसत राष्ट्रीय उत्पादकता की दर केवल 800 किलो प्रति हेक्टेयर के स्तर की ही थी, जो कि विकसित देशों की तुलना में बहुत कम थी। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के प्राक्तन डायरेक्टर जनरल एम एस स्वामीनाथन (M.S. Swaminathan) ने पौधों की उत्पादकता के ठहराव व पौधों के उत्पादन की अस्थिरता का गहरा विश्लेषण किया तथा उन कारणों की तह तक पहुँचने की कोशिश की, जिनके कारणवश यह स्थिति विद्यमान थी। उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि उस समय प्रयोग में आने वाली लम्बी किस्मों की शारीरिक बनावट ही अधिक उत्पादन के मार्ग में एक बाधा सिद्ध हो रही थी। उन्होंने उक्त पौधों की किस्मों की उत्पत्ति की प्रक्रिया की ही जननिक कार्यशैलियों के पुनःनिर्देशन पर जोर दिया।

सन 1970-80 के दशक के दौरान, गेहूँ की जननिक प्रक्रियाओं के माध्यम से नए किस्म के बीजों वाले, उच्च उत्पादकता के छोटे आकार के गेहूँ की किस्मों का विकास किया गया। इसी दौरान कुछ महत्त्वपूर्ण किस्में, 'कल्याण सोना', 'शर्बती सोनारा', 'सोनालिका' जैसी ऊँची उत्पादकता की किस्मों का विकास हुआ जिन्होंने खादों और सिंचाई की ओर अच्छा रुख अपनाया।

भारतीय जननिक वैज्ञानिकों के अनुरोध पर, सन 1963 में भारत सरकार ने मैक्सिको देश से प्रोफेसर नॉर्मन-ई-बोरलौग (Prof. Norman G. Borlaug) को आमंत्रित किया ताकि पौधों की बौनी (कम आकार) किस्मों के उत्पादन की संभावनाओं का वे भारत वर्ष में मूल्यांकन करें। भारत के कई क्षेत्रों का दौरा करने के पश्चात, उन्होंने भारत में मैक्सिकी उद्भव के ही छोटे आकार के गेहूँ की किस्मों को बोने का प्रस्ताव रखा। वे इस निष्कर्ष पर इस कारणवश पहुँचे क्योंकि मैक्सिको का मौसम व भूमि दोनों तुलनात्मक रूप से एक समान थीं। उनके सुझाव पर, लेरमा-राजो व सोनोरा-64 नामक दो किस्मों का चयन किया गया और उन्हें हमारे सींचे गए खेतों में बोने के लिये प्रयुक्त किया गया। इन किस्मों के प्रयोग से गेहूँ की उत्पादकता कई गुना बढ़ गयी और हमारे गेहूँ के निर्यात में क्रांति आ गई।

डॉ. बोरलॉग, मैक्सिको सरकार तथा रॉकफेलेर फाउंडेशन की सहकारी योजना के अन्तर्गत गेहूँ अनुसंधान व विकास कार्यक्रम के मुखिया के रूप में जुड़े। सन 1966 में उनकी गेहूँ के विकास की गुपचुप क्रांति ने संसार भर का ध्यान आकर्षित किया तथा मैक्सिको में ही अन्तरराष्ट्रीय गेहूँ व मक्के के विकास का केन्द्र (Centre for Quiet Revolution in Wheat Improvement) स्थापित किया गया। सन 1970 में उन्हें 'हरित क्रांति' लाने के लिये नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसी हरित क्रांति ने भारत की इतनी मदद की थी।

डॉ. एम. एस. स्वामीनाथन एक बेहतरीन उत्परिवर्तन जननिक वैज्ञानिक रहे हैं। इन्होंने सन 1967 में उगाने के लिये 'शर्बती सोनारा' नामक किस्म को निर्मित किया। उत्परिवर्तन जनन के कार्यक्रम में सोनारा 64 को अल्ट्रावायलेट किरणों से पारित करके उन्होंने इस 'किस्म' का निर्माण किया।